प्राणायाम दो शब्दों से बना है- प्राण और आयाम । प्राण महज सांस नहीं है । प्राण हमारे अंदर मौजूद सबसे सूक्ष्म और महत्वपूर्ण व्यवस्था है । आयाम का तात्पर्य विस्तार से है । यानी प्राणायाम वो साधना है जिसके जरिए हम अपने अंदर मौजूद सारभौमिक ऊर्जा का विस्तार करते हैं । संक्षेप में हम समझें कि हमाऱे शरीर की व्यवस्था मुख्य रुप से दो तरह की ऊर्जा से चलती है । एक ऊर्जा – जो हम मुख्य रुप से भोजन से प्राप्त करते हैं और दूसरी हमारी सूक्ष्म आंतरिक ऊर्जा जिसे हम प्राण कहते हैं । प्राण की ये ऊर्जा कई स्त्रोत से हमारे अंदर आती हैं, जिसे हम ग्रहण करते रहते हैं- जैसे भोजन, पानी , हवा, सूर्य ऊर्जा इत्यादि । ये स्त्रोत कई रूपों में प्रकृति में मौजूद है । इस प्राकृतिक स्त्रोत से प्राण को पूरे शरीर में विस्तार या आयाम देना ही प्राणायाम है ।
दरअसल हमारा शरीर प्राण का भंडार स्थल है और रक्त के संचार माध्यम के जरिए यह सूक्ष्म से भौतिक स्वरुप में हमारे एक-एक कोशिका तक पहुंचता है । प्राण को लेकर हमारी समझ में मुश्किले तब आती है जब प्राण का हम अंग्रेजी रुपांतरण Air यानी वायु के तौर पर करते हैं । दुर्भाग्य की बात है कि पश्चिम की तरह कई भारतीय योगियों ने भी इसी तरह के भाषा रुपांतरण कर प्राण की गहरी समझ से हमें दूर रखा ।
वास्तविक में प्राणायाम क्या है ?
प्राणापानसमायोग: प्राणायाम इतीरित:
प्राण और अपान का संयोग प्राणायाम है – योग याज्ञवल्क्य संहिता 6.2
यहां प्राण का आशय ग्रहण करने वाली सांसों से हैं तो अपान का तात्पर्य छोड़ी जाने वाली सांसों से है ।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वास्योर्गतिविच्छेदः प्राणायामः
उसके बाद (यानी आसन सिद्धता के बाद ) सांस लेने छोड़ने की गति से परे यानी सजगता (ध्यान) में चला जाना प्राणायाम है
– योगसूत्र – 2.49
महर्षि पतंजलि के इस सूत्र को ठीक-ठीक समझना होगा । इस सूत्र के व्याख्याकारों की वजह से कई तरह की राय सामने आई है और जिसने भ्रम की स्थिति पैदा की ।
श्वासप्रश्वास्योर्गतिविच्छेदः का अर्थ कई जगह बताया गया कि सांस का ना लेना, ना छोड़ना यानी कुम्भक की स्थिति ही प्राणायाम है । ये ऊपरी -ऊपरी व्याख्या होगी, क्योंकि पतंजलि जैसे ऋषि महज प्रक्रिया पर जोर नहीं देते, बल्कि उस प्रक्रिया से जो परम स्थिति हम हासिल कर सकते हैं , उस पर उनका इशारा रहता है । कुम्भक की स्थिति में हम ज्यादा वक्त नहीं ठहर सकते, फिर तुरंत आपको सांस के लेने और छोड़ने की प्रक्रिया में आना होता है, ऐसे में सूत्र के मुताबिक हम कैसे लेने छोड़ने की गति से खुद को विच्छेद यानी अलग कर पाएंगें ? दूसरा कुम्भक में ज्यादा रुकते ही आपकी सहजता जाने लगती है, क्योंकि सांस का रुक जाना सहज स्थिति नहीं और जहां सहजता नहीं वहां समाधि कहां, ध्यान कहां ?
ऐसे में महज कुम्भक को ही प्राणायाम कहना पूरी तरह से इशारे को ना समझने जैसा होगा ।
महर्षि पतंजलि के बहुत बाद बौद्ध दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ । बौद्ध में एक साधना काफी प्रसिद्ध है वो है- आनापानसति । आनापानसति पालि भाषा का शब्द है, लेकिन इसका मूल संस्कृत है । जिसे योग ने प्राण कहा उसे पालि में आना और अपान को पालि में पान कहा गया । सति का तात्पर्य सजगता से है, जिसपर बुद्ध की सारी साधना व शिक्षा का जोर रहा । वर्तमान में जिसे हम Mindfulness के रुप में जानते हैं उसे ही पालि में सति कहा गया और यहां योगसूत्र के श्लोक में भी सति उसी संदर्भ में मौजूद है । तो महर्षि पतंजलि कह रहें हैं कि प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की जो स्वभाविक गति है उससे परे सांसों पर परम सजगता है । बाद में बुद्ध की ध्यान साधना की ये व्यवस्था विपश्यना कहलाई ।
चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्
सांस की गति तेज़ होने से चित्त यानी मन तेज होता है और सांस की स्थिरता से चित्त में स्थिरता आती है
-हठयोग प्रदीपिका 2.2
हठयोग प्रदीपिका के रचनाकार स्वामी स्वात्माराम यहां प्राणाायाम के महत्व की रेखांकित कर रहें हैं । प्राणायाम जहां प्राण के विस्तार को सुनिश्चित करता है, वही ये सीधे हमारे चित्त यानी मन से भी संबंधित है । सांसों की तेज गति हमारे अंदर मन की तेजी को पैदा करता है । इन दिनों कई संस्थानों में तेज़ गति से सांस लेने छोड़ने की प्रक्रिया पर ज्यादा फोकस है, जबकि ग्रंथ का कहना है कि इससे हमारा मन ज्यादा चंचल यानी नियंत्रण से बाहर होता है । सांसों की स्थिरता में मन स्थिर रहता और और हम अपनी बहुत सारी ऊर्जा, जो मन के जरिए खपत होती है , उसका संग्रह कर सकते हैं।